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व्याख्यान

शैक्षणिक संस्थाओं में व्याख्यान- इंडियन इंस्‍टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलौर

श्‍यामा प्रसाद मुकर्जी


भारतीय विज्ञान संस्‍थान, बंगलूरू के प्रशासन कार्य में डॉ. मुकर्जी का विशिष्‍ट योगदान रहा। वर्ष 1935 में उन्‍हें कोर्ट एवं काउंसिल (परिषद) का सदस्‍य बनाया गया। कोर्ट एवं काउंसिल प्रशासन की महत्त्वपूर्ण इकाई थे। डॉ. मुकर्जी उन दिनों कलकत्ता विश्‍वविद्यालय के कुलपति पद पर रहते हुए अपने व्‍यस्‍त जीवन में भारतीय विज्ञान संस्‍थान के लिए भी समय निकालते थे। वहाँ की बैठकों में हिस्‍सा लेने जाते थे अथवा पत्राचार के माध्‍यम से अपने महत्त्वपूर्ण सुझाव प्रेषित करते रहते थे। डॉ. मुकर्जी संस्‍थान की वित्त समिति के भी सदस्‍य थे। संस्‍थान के लिए उच्‍च गुणवत्ता के नए उपकरण खरीदने हों अथवा नए स्‍टाफ की भर्ती का प्रश्‍न हो; डॉ. मुकर्जी उसमें पूरी रूचि लेते थे। उन दिनों वहाँ के निदेशक सर सी.वी. रमन थे। वे वहाँ के पहले भारतीय निदेशक थे। संभवत: यह बात कुछ अंग्रेजों के लिए गले की हड्डी बनी हुई थी। विशेषत: इसी संस्‍था में कार्यरत एक अंग्रेज विद्वान् वाटसन ने बहुत बुरा माना, जो शायद यह मंसूबा बाँधे था कि उसे सर मार्टिन फोस्‍टर के बाद निदेशक बनाया जाएगा। सर रमन के लिए यह समय थोड़ा मुश्किलों भरा था। संस्‍थान के बहुत-से लोग उन्‍हें सहयोग नहीं दे रहे थे। 1937 में सर रमन ने पूर्णत: भौतिक शास्‍त्र के शोध कार्य में अपने की समर्पित करना चाहा और निदेशक पद से इस्‍तीफा दे दिया।

सर रमन के त्‍यागपत्र देने के बाद संस्‍थान में सीनेट का कुछ वर्ग ऐसा था जो निदेशक पद को ही खत्‍म करना चाहता था। नए निदेशक के आने तक श्री बी. वेंकटेश्‍वर ने निदेशक का कार्यभार सँभाला था। संस्‍थान जिन मुश्किलों से गुजर रहा था, उसकी सूचनाएँ श्री वेंकटेश्‍वर डॉ. मुकर्जी को पत्रों के माध्‍यम से देते रहते थे। डॉ. मुकर्जी में एक अच्‍छे और चतुर प्रशासक के गुण थे। उन्‍हें मालूम था कि कैसे बिगड़े हुए माहौल को सही दिशानिर्देश दिया जाए और कैसे संस्‍थान का नुकसान होने से रोका जाए। अंग्रेजों के पक्षपातपूर्ण रवैये के खिलाफ उन्‍हें बखूबी खड़ा होना आता था। संस्‍थान के कार्यों में डॉ. मुकर्जी की सक्रियता का उदाहरण है रजिस्‍ट्रार सी.ई.डब्‍ल्‍यू. जोन्‍स ने निदेशक के रिक्‍त पर की भर्ती के लिए आवेदन प्राप्ति हेतु जो इश्तिहार बनाया, डॉ. मुकर्जी को भेजा गया। डॉ. मुकर्जी ने उस ड्राफ्ट में संशोधन कर रजिस्‍ट्रार को भेज दिया।16

डॉ. मुकर्जी को विरासत में मिला गुण 'कर्मठ विद्वतजनों की पहचान', उन्‍हें हमेशा काम आता रहा। 'यथा राजा तथा प्रजा' - इस उक्ति पर डॉ. मुकर्जी का पूरा विश्‍वास था। ढाका विश्‍वविद्यालय के डॉ. जे.सी. घोष का आवेदन निदेशक पद के लिए प्राप्‍त हुआ। ढाका विश्‍वविद्यालय के कुलपति ने बताया कि डॉ. घोष में एक अच्‍छे प्रशासक के गुण विद्यमान हैं। वे केवल अट्ठाईस वर्ष की आयु में रसायन शास्‍त्र विभाग के अध्‍यक्ष बन गए थे। ढाका विश्‍वविद्यालय के कुलपति ने डॉ. मुकर्जी को बताया था कि डॉ. घोष ने ढाका में कृषि रसायनशास्‍त्र और मृदा विज्ञान विभाग स्‍थापित किए थे। डॉ. घोष ने एक के बाद एक नई योजनाएँ लागू की थीं। कृषि संकाय तथा औषध विज्ञान संकाय की स्‍थापना में डॉ. घोष का अहम योगदान था। डॉ. मुकर्जी चाहते थे कि भारतीय विज्ञान संस्‍थान में भी ऐसा ही एक भारतीय निदेशक मिले, जो नई योजनाओं को सक्रियता से लागू कर पाए तथा अपने अभिनव विचारों से संस्‍थान को सफलता के शिखर तक ले जाए। इसलिए डॉ. मुकर्जी ने तुरंत काउंसिल के एक अन्‍य सदस्‍य प्रो.वी.एन. चंद्रावरकर को पत्र लिखा तथा उनसे कहा कि संस्‍थान को स्थिर नींव प्रदान करने का यह अवसर चूकना नहीं चाहिए तथा टाटा प्रतिनिधि से बात कर डॉ. घोष को नियुक्ति पत्र भेज देना चाहिए।

ज्ञातव्‍य है कि संस्‍थान उस दौर में वित्तीय समस्‍या का सामना भी कर रहा था। नए निदेशक को उसकी काबिलियत के हिसाब से वेतन देने में भी समस्‍या थी। अंतत: परिषद् के आग्रह पर डॉ. मुकर्जी ने डॉ. घोष से बात की और उन्‍हें कम वेतन पर राजी कर लिया। हालाँकि डॉ. मुकर्जी ने उनकी अन्‍य शर्तों -मुफ्त आवास, दस वर्ष के लिए नियुक्ति, शोध कार्य के लिए व्‍यक्तिगत लैब स्‍टाफ तथा वित्तीय सहायता को मान लिया। यह डॉ. मुकर्जी का अनुभव ही था, जो भारतीय विज्ञान संस्‍थान को नई ऊँचाइयों तक ले गया।

नये निदेशक की नियुक्ति के पश्‍चात् सर रमन की सक्रियता में कोई कमी न आए, इसलिए डॉ. मुकर्जी ने सर विश्‍वेश्‍वरैया के साथ मिलकर सर रमन को आश्‍वस्‍त किया कि भौतिक शास्‍त्र विभाग के अध्‍यक्ष पद का भार सँभालने पर उन्‍हें पहले दी जा रही सुविधाओं (निदेशक के बतौर) को वापस नहीं लिया जाएगा, अपितु नए निदेशक का तो वेतनमान भी सर रमन से कम था। डॉ. मुकर्जी का मानना था कि हमारे पास सर रमन जैसे वैज्ञानिक बहुत कम हैं तथा हमारे पास जो हैं, उनको सर्वोत्तम सुविधाएँ दी जानी चाहिए। सर रमन ने भी उन्‍हें सुनिश्चित किया कि वे अपने कर्तव्‍य का वहन पूर्ण निष्‍ठा से करेंगे। यह बात 1938 की है। सर रमन ने भौतिक शास्‍त्र विभाग सँभाला और परिषद् ने उनकी शर्तों (फिजिक्‍स लैब के लिए उचित स्‍थान, अपने पहले बँगले में रहने की अनुमति) को मंजूरी दी।

12 जून 1939 को संस्‍थान की परिषद की बैठक में विभिन्‍न मुद्दों पर चर्चा की गई और कुल 21 प्रस्‍ताव पारित किए गए। परिषद में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा उठाया गया। सीनेट अपने अधिकार क्षेत्र का उल्‍लंघन कर रही थी। सीनेट के प्रस्‍तावों और फैसलों का मूल्‍यांकन करने के लिए डॉ. मुकर्जी की अध्‍यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। सीनेट में कोई सदस्‍य ऐसा भी था, जो मुद्दों को परिषद में आने से पहले ही प्रेस को लीक कर देता था। डॉ. मुकर्जी ने प्रेस को सूचित करवाया कि अधिकृत विज्ञप्तियों को ही अखबार में छापा जाए। डॉ. मुकर्जी ने स्‍पष्‍ट किया कि परिषद की प्रत्‍येक बैठक के बाद निदेशक के माध्‍यम से अधिकृत प्रेस विज्ञप्ति भेजी जाए। विद्यार्थियों की अनुशासन हीनता की समस्‍या पर भी चर्चा की गई। डॉ. मुकर्जी के अनुशासन के विषय में विचार एकदम स्‍पष्‍ट थे। उन्‍हें अनुशासनहीन लोग अप्रिय लगते थे। उन्‍होंने कमेटी के माध्‍यम से विद्यार्थी परिषद् के नेता को स्‍पष्‍ट कर दिया कि अनुशासन हीनता सहन नहीं की जाएगी। कमेटी में डॉ. मुकर्जी के अतिरिक्‍त एन.एस.सुब्‍बाराव, प्रो.एस.एस. भटनागर, जे.एस. भट्ट, वी.एन.चंद्रावरकर भी शामिल थे।

डॉ. मुकर्जी जिस भी शैक्षणिक संस्‍था से जुड़े, वहाँ अच्‍छे शिक्षाविदों को लाते रहे। भारतीय प्राकृतिक राल एवं गोंद संस्‍थान (तत्‍कालीन भारतीय लाख शोध संस्‍थान), राँची के निदेशक प्रो. एच. के. सेन को भारतीय विज्ञान संस्‍थान के रसायनशास्‍त्र विभाग में प्रोफेसर के पद पर लाए जाने पर डॉ. मुकर्जी ने अपनी सहमति जताई। उनकी सहमति से रसायनशास्‍त्र विभाग में अतिथि प्राध्‍यापक के बतौर डॉ. आर्मस्‍ट्राँग को भी नियुक्‍त किया गया।

विश्‍वभारती , शांति निकेतन

डॉ. मुकर्जी विश्‍वभारती, शांति निकेतन की कार्य समिति, संसद, ग्रंथ विभाग समिति, संगीत समिति इत्‍यादि समितियों के सदस्‍य थे। डॉ. मुकर्जी, रवींद्रनाथ टैगोर, कम सचिव, विश्‍वभारती से पत्राचार तथा व्‍यक्तिगत रूप से भी जुड़े रहे।

डॉ. मुकर्जी शांति निकेतन की बैठकों में भी हिस्‍सा लेते थे। दिसंबर 1950 की वार्षिक समिति की अध्‍यक्षता डॉ. मुकर्जी ने की।

1950 के दीक्षांत समारोह में भाषण देते हुए डॉ. मुकर्जी ने कहा कि गुरूदेव रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दूरदर्शी एवं देशभक्‍त को वे प्रणाम करते हैं। गुरूदेव ने आधुनिक भारत में सर्वप्रथम अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर की शैक्षणिक पीठ स्‍थापित करके एक महान्‍ कार्य किया है। शिक्षा एक आनंद है, उस बोझ नहीं बनाया जाना चाहिए। गुरूदेव कहा करते थे कि शिक्षा को पल्‍लवित होने के लिए उचित वातावरण की आवश्‍यकता है, जो हमें प्राकृतिक ग्रामीण परिवेश में प्राप्‍त हो सकता है। गुरूदेव ने शांति निकेतन की स्‍थापना कर भारतीय परंपरा का पश्चिम के तर्क के साथ सामंजस्‍य प्रस्‍तुत किया है। गुरूदेव प्रत्‍येक स्‍तर पर मातृभाषा के पक्षधर रहे हैं। कला, साहित्‍य और कृषि विज्ञान जैसे विषय पढ़कर जाने वाले विद्यार्थियों पर गुरूदेव के आदर्शवाद तथा यथार्थवाद की गहरी छाप पड़ जाती है। अंतर्राष्‍ट्रीय समझ उत्‍पन्‍न करने के लिए कला, शिल्‍प (Architecture), दर्शन, भाषा, साहित्‍य और धर्म सभी का तुलनात्‍मक अध्‍ययन किया जाना चाहिए। मानवीय संस्‍कृति और वैज्ञानिक सोच में सामंजस्‍य पैदा किया जाए, ताकि विश्‍व में शांति का परचम फहराया जा सके। डॉ. मुकर्जी गुरूदेव रवींद्रनाथ के इन विचारों को यथार्थ के धरातल पर विस्‍तार देने के लिए प्रतिबद्ध थे।

डॉ. मुकर्जी का मानना था कि टैगोर के सपने को पूरा करने के लिए शांति निकेतन में भारतीय संस्‍कृति और सभ्‍यता से जुड़े हुए विषयों का उचित शिक्षण प्रारंभ किया जाना चाहिए। ऐसा करने के लिए संग्रहालय एवं पुस्‍तकालय उपलब्‍ध कराए जाने चाहिए तथा अध्‍यापकों और शोधकर्ताओं के लिए विशेष स्‍कॉलरशिप्‍स शुरू की जानी चाहिए। गुरूदेव स्‍वतंत्रता को शिक्षा का प्राण मानते थे। वे नहीं चाहते थे कि उनका संस्‍थान किसी भी दूसरे परंपरागत संस्‍थान की नकल करे, क्‍योंकि वे स्‍वयं उनके मूल्‍यों और योग्‍यता पर संदेह करते थे। प्रारंभ में वे किसी भी वैधानिक (Statutory) भारतीय विश्‍वविद्यालय अथवा तत्‍कालीन भारत सरकार से कोई संबंध स्‍थापित करना नहीं चाहते थे, लेकिन बाद के दिनों में वे स्‍वयं तथा विश्‍वभारती कलकत्ता विश्‍वविद्यालय के नजदीकी संपर्क में आए17, जहाँ उनके कर्म की स्‍वतंत्रता (Freedom of Action) को अनछुआ रखा गया तथा उन्‍हीं दिनों विश्‍वभारती भी इतना समर्थ हो गया कि वह किसी शैक्षणिक तथा प्रशासकीय लाभ लेने को तैयार था। विश्‍वभारती अपनी उपयोगिता सिद्ध कर चुका था। 18 विश्‍वभारती टैगोर का प्रतिनिधित्‍व करता है, जो किसी अन्‍य भारतीय विश्‍वविद्यालय से भिन्‍न है। डॉ. मुकर्जी ने आगे कहा कि यह आवश्‍यक नहीं कि सभी विश्‍वविद्यालय एक ही ढर्रे पर काम करें। विश्‍वभारती को वैधानिक विश्‍वविद्यालय का दर्जा दिए जाने के प्रस्‍ताव का राधाकृष्‍णन आयोग ने समर्थन किया है तथा शीघ्र ही भारतीय संसद भी विश्‍वभारती के अखिल भारतीय स्‍तर का समर्थन कर देगी तथा विश्‍वभारती को पर्याप्‍त वित्तीय सहयोग मिल जाएगा, जिससे संस्‍थान के मुख्‍य उद्देश्‍यों की पूर्ति संभव हो पाएगी। हम सभी को यह सुनिश्चित करना होगा कि विश्‍वविद्यालय मात्र एक मशीन अथवा प्राणरहित प्रशासनिक संकाय न बना रहे, जो सिर्फ नियमों व उपनियमों के बोझ तले अपने प्राणों की रक्षा की गुहार लगाता नजर आए। विश्‍वविद्यालय को एक स्‍वर्णिम पिंजरा न बनाया जाए, जहाँ एक पक्षी स्‍वतंत्र वायु तथा प्रकाश पाने के लिए छटपटता रहे। अंग्रेजों ने गुलाम बनाए रखने के लिए 100 वर्ष पूर्व जो शिक्षा प्रणाली रची थी, उसमें महान्‍ भारतीय शिक्षाविदों की मेहनत से शिक्षा प्रणाली के मूलभूत चरित्र में समय-समय पर परिवर्तन किए गए हैं।

डॉ. मुकर्जी ने कहा कि भारतीय विश्‍वविद्यालयों की गतिविधियों में एक-दूसरे की नकल हो प्रश्रय न देते हुए समन्‍वय स्‍थापित करना आवश्‍यक है। एक जैसी शैली को सभी विश्‍वविद्यालय अपनाएँ, ऐसा नहीं होना चाहिए। विशिष्‍ट संस्‍थाओं के महत्त्व की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। भारतीय लोगों के आगामी जीवन की शांति, विकास तथा खुशी का महत्त्वपूर्ण घटक होगा-शिक्षा का बुद्धिमानी से प्रारूप तैयार करना और उसे उचित ढंग से कार्यान्वित करना। प्राथमिक, माध्‍यमिक तथा उच्‍चतम शिक्षा का विस्‍तार हमारा उद्देश्‍य होना चाहिए तथा 'शिक्षामें समानता' हमारा लगातार उद्देश्‍य होना चाहिए। शिक्षा एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ राज्‍य पर कभी ज्‍यादा खर्च का आरोप नहीं लगाया जा सकता। यदि शिक्षा का प्रारूप त्रुटिहिन हो तथा प्रशासन उचित हो तो जितना अधिक शिक्षा पर व्‍यय किया जाएगा, उतना मजबूत परिणाम हमारे सामने होगा, जो राष्‍ट्रीय समृद्धि और एकजुटता का मार्ग प्रशस्‍त करने वाला होगा।

राज्‍य सरकारों को और समाज के प्रतिष्ठित दानियों को पूरी चेतनता के साथ शिक्षा क्षेत्र को बढ़ाया देने के लिए धन देना चाहिए। शिक्षा में धन लगाना धन व्‍यय करना नहीं अपितु धन निवेश करना है। पूर्ण समर्पण के साथ भारतीय विश्‍वविद्यालयों को ऐसे मनीषी तैयार करने चाहिए, जो अपनी समृद्ध विरासत से जुड़े हुए हों तथा विज्ञान तथा तकनीकी का पर्याप्‍त ज्ञान रखते हों। डॉ. मुकर्जी ने कामना की कि विश्‍वभारती टैगोर के सपने को साकार कर पाए तथा भारत की आत्‍मा को पुनर्जाग्रत कर सके।

गुरूदेव ने विश्‍वभारती की संकल्‍पना प्रस्‍तुत करते हुए कहा था विश्‍वभारती छात्रों व शिक्षकों के परस्‍पर सहयोग और सरकारी प्रयास से परिणित एक ऐसी सर्वकालिक संस्‍था हो, जिसका विकास उससे संबद्ध लोगों के आत्मिक विकास से संयोजित हो। यह स्‍वयं में स्‍वाधीन एवं आत्‍मनिर्भर और एक विश्‍व के सदृश हो, जो जीवन के सतत नवीनीकरण से संबर्द्धित हो। एक संस्‍था, जो ऐसी चमक से परिपूर्ण हो, जो देशकाल और समय की सीमाओं से परे जाकर जीवंतता की चमक बिखेर सके। यह एक ऐसी संस्‍था के रूप में विकसित हो जो अपने आसपास नक्षत्रों के समान स्‍वयं से जुड़ी अनेक अन्‍य संस्‍थाओं के विकास में अहम भूमिका निभा रही हो। इस संस्‍था का मुख्‍य उद्देश्‍य ऐसे व्‍यक्तियों का सृजन हो, जो सामाजिक सरोकारों से बँधे बौद्धिक और आर्थिक रूप से संपूर्ण व्‍यक्तित्‍व हों, परंतु वे आध्‍यात्मिक स्‍वतंत्रता और उच्‍चतम संभव मानवीय स्थिति की प्राप्ति का प्रयास करने वाले भी हों।

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस , कलकत्ता

यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस19, कलकत्ता के विकास में डॉ. मुकर्जी का अभूतपूर्व योगदान रहा है। कॉलेजकी नींव 14 अप्रैल 1914 को सर आशुतोष मुकर्जी ने रखी थी। कॉलेज की सिल्‍वर जुबली मनाने के लिए डॉ. श्‍यामा प्रसाद मुकर्जी ने एक कमेटी का गठन किया। उन्‍होंने कॉलेज के सभी सदस्‍यों से अपना सपना साझा करते हुए कहा कि यह कॉलेज ऐसे पेशेवर लोगों को तैयार करे, जो उद्योगों की आवश्‍यकताओं को पूरा कर सकें, ऐसे शिक्षक बनाएँ जो विद्यालयों और महाविद्यालयों की जरूरतों को पूरा कर सकें तथा यह कॉलेज ऐसे प्रोफेसर तथा शोधकर्ता तैयार करे, जो भारत का मान बढ़ाएँ। उनका सपना था कि कॉलेज उद्योगपतियों तथा जनता के संपर्क में आए तथा कॉलेज के उद्योग विभाग का विस्‍तार किया जाए। वे चाहते थे कि कॉलेज की कार्यशैली का पनुर्गठन किया जाए। उनका सपना युनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में चलाए जा रहे इं‍डस्‍ट्री इंस्‍टीट्यूट पॉर्टनशिप प्रोग्राम के रूप में सच हुआ है।

डॉ. मुकर्जी इस कॉलेज में विज्ञान संग्रहालय की स्‍थापना करना चाहते थे। उनका विचार था कि विज्ञान संग्रहायल विज्ञान और तकनीक को लोकप्रिय बनाएगा जिससे भारत के विकास की राह आसान बनेगी। उनका यह सपना उनके जीवनकाल में पूरा न हो सका। सबसे पहला विज्ञान संग्रहालय बिट्स पिलानी में खोला गया। राष्‍ट्रीय विज्ञान संग्रहालय परिषद की स्‍थापना अप्रैल 1978 में की गई, जिसका मुख्‍यालय कलकत्ता में है। यूनिवर्सिटी साइंस कॉलेज में अनेक विभाग हैं, डॉ. मुकर्जी सभी विभागों की एक कॉमन लाइब्रेरी का निर्माण कराना चाहते थे। डॉ. मुकर्जी की अध्‍यक्षता में एक वर्किंग कमेटी बनाई गई, जिसका उद्देश्‍य इन सभी उद्देश्‍यों की पूर्ति के लिए फंड इकट्ठा करना था।

उन्‍होंने यू‍निवर्सिटी कॉलेज के माध्‍यम से एक और लक्ष्‍य निर्धारित किया था। वे बर्लिंगटन हाउस, लंदन की तरह एक ऐसे भवन का निर्माण चाहते थे। जिसमें कई सभागार और सेक्‍शन हों, जहाँ भारत का संपूर्ण वैज्ञानिक समाज एक साथ जुड़ सके। जहाँ नेशनल इंस्‍टीट्यूट ऑफ साइंस, इंडियन कैमिकल, फिजिकल तथा अन्‍य साइंटिफिक सोसाइटी जैसी अखिल भारतीय वैज्ञानिक समितियाँ इकट्ठी हो सकें।

साहा इंस्‍टीट्यूट ऑफ न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स , कलकत्ता

डॉ. मुकर्जी भारत के विकास के लिए हरसंभव प्रयत्‍न कर रहे थे। डॉ. मेघनाद साहा जैसे उच्‍चकोटि के वैज्ञानिक को कलकत्ता विश्‍वविद्यालय में लाना और उनके शोध के लिए मार्ग प्रशस्‍त करना, उनका ऐसा ही एक प्रयत्‍न था। डॉ. साहा ने फिजिक्‍स पालित चेयर का कार्यभार सँभाला। डॉ. मेघनाद साहा ने डॉ. मुकर्जी के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करते20 हुए कहा कि डॉ. मुकर्जी ने उन्‍हें विभिन्‍न देशों की यात्राएँ करने की सुविधाएँ प्रदान कीं तथा आणविक ऊर्जा के काम का उनका रास्‍ता सुगम कर दिया। ज्ञातव्‍य है कि डॉ. साहा अपने संस्‍थान के रास्‍ते में आ रही रूकावटों को डॉ. मुकर्जी से ही साझा करते थे, उन्‍हें पता था कि डॉ. मुकर्जी ऐसे राष्‍ट्रभक्‍त हैं जो अपने राष्‍ट्र का बहुआयामी विकास होते देखना चाहते हैं। डॉ. मुकर्जी उनकी समस्‍याओं के समाधान भी करा दिया करते थे। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स का नया विंग तैयार किया जाना था, परंतु जगह की कमी थी। यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ साइंस में न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स का अध्‍यापन कार्य भी शुरू किया जाना था, जिसके लिए जगह की आवश्‍यकता थी। हवाई प्रशिक्षण कोर ने उस भवन का कुछ हिस्‍सा लिया हुआ था, लेकिन उस हिस्‍से का इस्‍तेमाल नहीं किया जा रहा था। डॉ. मुकर्जी ने अपने प्रवीण वाक् कौशल का इस्‍तेमाल कर वह हिस्‍सा उनसे खाली करवाया।

डॉ. साहा आणविक ऊर्जा में शोध कार्य को आगे बढ़ाना चाहते थे। डॉ. साहा ने डॉ. मुकर्जी के प्रति अपना आभार प्रकट करते हुए कहा था- डॉ. मुकर्जी के ही प्रयासों से वे पालित फिजिक्‍स लेबोरेट्री (1940-48) में इस शोध कार्य का संपादन कर पा रहे थे। डॉ. साहा आणविक ऊर्जा की अपनी रिपोर्ट की अनुशंसा डॉ. मुकर्जी से प्राप्‍त करना चाहते थे। अत: उन्‍होंने अपने एक सहयोगी सर जे.सी. घोष के माध्‍यम से यह रिपोर्ट डॉ. मुकर्जी को अध्‍ययन के लिए भेजी।

डॉ. साहा ने 10 अप्रैल 1948 को डॉ. मुकर्जी को पत्र लिखकर उनका ध्‍यान इस ओर आकर्षित करवाया कि सदन में पं. नेहरू ने आणविक ऊर्जा बिल पेश करते हुए एक ऐसा प्रावधान रखा है जो नकारात्‍मक साबित होगा। पं. नेहरू शोध को एक ही जगह बाँधकर रख देना चाहते थे। डॉ. मुकर्जी से उन्‍होंने अपील की कि वे पं. नेहरू को इस बात के लिए तैयार करें कि शोध को बाँधकर नहीं रखा जाना चाहिए। डॉ. मुकर्जी का भी यही मानना था कि यदि भारत को विकास की राह पर बढ़ाना है तो विभिन्‍न शोध केंद्रों को संपूर्ण भारत में स्‍थापित किया जाना चाहिए। अमेरिका, ब्रिटेन इत्‍यादि देशों में भी कहीं शोध को एक ही जगह बाँधे रखने का प्रावधान नहीं रखा जाता था। डॉ. मुकर्जी तो शिक्षण संस्‍थानों के साथ शोध केंद्रों को जोड़ने के पक्षधर थे। आखिरकार पं. नेहरू ने उनकी यह बात मान ली तथा आणविक ऊर्जा बिल से इस प्रावधान को हटा दिया गया। जब डॉ. मुकर्जी ने 21 अप्रैल 1948 को इंस्‍टीट्यूट ऑफ टेक्‍नोलॉजी की नींव रखी, तब डॉ. साहा ने डॉ. मुकर्जी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए सभी को बताया कि डॉ. मुकर्जी ने तो इस संस्‍थान की नींव सात वर्ष पहले ही रख दी थी, जब उन्‍होंने फिजिक्‍स लेबोरेट्री में साइक्‍लोट्रॉन21 स्‍थापित किए जाने के लिए कलकत्ता यूनिवर्सिटी की सीनेट को मनाया कि वह टाटा चैरिटी से वित्तीय सहायता प्राप्‍त करने के लिए तैयार हो जाए, जबकि बंगाल सरकार के प्रतिनिधि इस सहायता के एकदम खिलाफ थे, क्‍योंकि उन्‍हें लगता था कि वित्तीय सहायता (रू. 60,000) कम थी। डॉ. मुकर्जी की सकारात्‍मक सोच इस परियोजना की नींव में थी। उनका मानना था कि एक बार यज्ञ कुंड की स्‍थापना की जाए, हवन में आहुति देने वाले लोग तो जुट ही जाते हैं। संस्‍थान की नींव के समय प्रो. प्रमथनाथ बैनर्जी (कुलपति, कलकत्ता विश्‍वविद्यालय) ने परियोजना का संक्षिप्‍त परिचय प्रस्‍तुत किया। डॉ. मुकर्जी ने अपने वक्‍तव्‍य22 में आणविक ऊर्जा की उपयोगिता तथा उसके भविष्‍य में किए जा सकने वाले विभिन्‍न प्रयोगों का जिक्र करते हुए कहा कि हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिरने के बाद से विश्‍व आणविक ऊर्जा के प्रति सचेत हो गया है। उस दु:खद घटना ने आणविक ऊर्जा के सकारात्‍मक उपयोगों को ढक दिया है। उन्‍होंने कहा कि शांति-समय में आणविक ऊर्जा भगवान का एक वरदान साबित हो सकती है। आगे उन्‍होंने कहा कि-

- यह ऊर्जा विश्‍व के प्रत्‍येक क्षेत्र में पहुँच सकने वाली असीमित ऊर्जा का स्रोत है।

- यह रोगों के अध्‍ययन, नियंत्रण और उपचार का नया शस्‍त्र है। रेडियोएक्टिव इस क्षेत्र में बहुत कारगर सिद्ध होगा।

- इससे हम जान पाएँगे कि पौधे और पशु कैसे विकसित होते हैं।

- उत्तम खाद्य उत्‍पाद और पोषण के क्षेत्र में यह बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

डॉ. मुकर्जी को न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स के विषय में सोच एकदम स्‍पष्‍ट थी। वर्ष 1950 में इंस्‍टीट्यूट ऑफ न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स, कलकत्ता में कार्य संपादन आरंभ कर दिया गया। 11 जनवरी 1950 को इंस्‍टीट्यूट के उद्घाटन समारोह में विश्‍वविख्‍यात वैज्ञानिक मैरी क्‍यूरी (मैडम इरने जूलियट) के अतिरिक्‍त अन्‍य बुद्धिजीवी भी उपस्थित थे। प्रो. मैडम क्‍यूरी ने उद्घाटन किया। डॉ. भाभा, डॉ.एस.एस भटनागर इत्‍यादि वैज्ञानिकों ने डॉ. साहा के इस कार्य की काफी सराहना की। इंस्‍टीट्यूट की नींव रखने के अतिरिक्‍त कार्यकारी निकाय में सदस्‍य के बतौर डॉ. मुकर्जी ने अपना योगदान दिया।

इंस्‍टीट्यूट ऑफ न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स, न्‍यूक्‍लीयर कैमिस्‍ट्री, बायो फिजिक्‍स, एटोंमिक एनर्जी रिसर्च को समर्पित था। डॉ. साहा ने कहा कि यह इंस्‍टीट्यूट भावी वैज्ञानिक के लिए नर्सरी पाठशाला का काम करेगा। वर्ष 1956 में डॉ. साहा के देहावसान के बाद इस इंस्‍टीट्यूट का नाम साहा इंस्‍टीट्यूट ऑफ न्‍यूक्‍लीयर फिजिक्‍स रखा गया।


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